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"उम्मीद"

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आकृति श्रीवास्तव ✍️✍️

ये रचना मेरी अपनी सोच है और मैं इससे किसी को भी दुखी नही करना चाहती अगर ऐसा होता है तो उसके लिए मैं क्षमा प्रार्थी हूँ। मेरे शीर्षक से आप समझ गए होंगे कि मैं किस विषय पे बात करना चाह रही हूँ। बस कुछ बाते मन मे हैं जो आप से कहना है। हमे दुसरो से उम्मीद उतनी ही रखनी चाहिए जितना कि आपको खुद को तकलीफ न हो अगला हमारी उम्मीद पे पूर्णतया खरा उतरेगा ऐसा हम कैसे अंदाजा लगा सकते है।कुछ लोग होते है जो लड़कियों से उम्मीद नही रखते कहते है, जैसे- इनका क्या इनको तो ब्याह के एक दिन पराये घर जाना है इनसे क्या उम्मीद रखे और बेटे तो वंश आगे बढ़ाएंगे उम्मीद तो उन्ही से है,अब साहब ये बताइये की उन माता-पिता का क्या जिनके सिर्फ बेटिया ही है,क्या उनका वंश नही चलेगा? तो इसका मतलब उन अभिभावकों को बेटियों को बिल्कुल पढ़ाना लिखाना नही चाहिए। दूसरी बात पे आते है, लोगो को ऐसा लगता है कि उनके बच्चे उनकी उम्मीदों पे खरे उतरेंगे,और जब यही उम्मीद टूटती है तो वो खुद की परवरिश पे ही ऊँगली उठाने लगते है कि जरूर हमने ही अच्छे संस्कार नही दिए होंगे,क्यों भाई क्या आपको अपने पे विश्वास नही। यही तो कहना चाहती थी मैं ,की आप दूसरो से उम्मीद करने से पहले खुद से उम्मीद करे कि क्या आप अपने उम्मीदों पे खरे उतर रहे जवाब मिल जाएगा। हम पूरी उम्र दूसरो से प्यार करने मे दूसरो से इज्जत कमाने में लग जाते है,पर क्या हम खुद से प्यार करते है क्या हम खुद की इज्जत करते है? सवाल खुद से पूछना है। जब खुद से प्यार नहीं करते तो दूसरो से कैसे उम्मीद कर लेते है कि वो भी हमसे करेगा।

ऐसा सिर्फ एक रिश्ते में नही होता बल्कि सभी रिश्तों में होता है जितनी ज्यादा उम्मीदें उतनी ज्यादा तकलीफ। इसलिए खुद से प्यार करना पहले सीखे बाद में दूसरो में खोजना।

धन्यवाद।।